ये किसी अखाड़े, आश्रम या किसी मंदिर से भी जुड़े होते है,ये अक्सर समूह में रहते है। कुछ तप करने के लिए हिमालय और गुफाओं में चले जाते है।
वह अर्धकुंभ, महाकुंभ में निर्वस्त्र रहकर हुंकार भरते हैं, शरीर पर भभूत लपेटते हैं, नाचते गाते हैं, डमरू ढपली बजाते हैं लेकिन कुंभ खत्म होते ही गायब हो जाते हैं। आखिर क्या है नागाओं की रहस्यमयी दुनिया का सच? कहां से आते हैं और कहां गायब हो जाते हैं ये साधु, आइए जानते हैं.
नागा संन्यासी किसी एक गुफा में कुछ साल रहते है और फिर किसी दूसरी गुफा में चले जाते हैं। इस कारण इनकी सटीक स्थिति का पता लगा पाना मुश्किल होता है। इन में से बहुत से संन्यासी वस्त्र धारण कर और कुछ निर्वस्त्र भी गुप्त स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं।
एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी इसी तरह गुफाओं को बदलते और भोले बाबा की भक्ति में डूबे ये नागा जड़ी-बूटी और कंदमूल के सहारे पूरा जीवन बिता देता हैं। कई नागा जंगलों में घूमते-घूमते सालों काट लेते हैं और अगले कुंभ या अर्ध कुंभ में नजर आते हैं।
नागा साधु जंगल के रास्तों से ही यात्रा करते हैं। आमतौर पर ये लोग देर रात में चलना शुरू करते हैं। यात्रा के दौरान ये लोग किसी गांव या शहर में नहीं जाते, बल्कि जंगल और वीरान रास्तों में डेरा डालते हैं। रात में यात्रा और दिन में जंगल में विश्राम करने के कारण सिंहस्थ में आते या जाते हुए ये किसी को नजर नहीं आते।
कुछ नागा साधु झुण्ड में निकलते है तो कुछ अकेले ही यात्रा करते हैं। नागा यात्रा में कंदमूल फल, फूल और पत्तियों का सेवन करते हैं।
नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकते। यहां तक कि नागा साधुओं को कृत्रिम पलंग या बिस्तर पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल जमीन पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है। आमतौर पर यह नागा सन्यासी अपनी पहचान छुपा कर रखते हैं।
नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण करना होता है।
हर अखाड़े में होता है एक कोतवालः साधुओं के अखाड़ों की परंपरा के अनुसार यह अखाड़े का एक कोतवाल होता है। जब दीक्षा पूरी होने के बाद नागा साधु अखाड़ा छोड़ साधना करने जंगल या पहाड़ों में चले जाते हैं, तो ये कोतवाल नागा साधुओं और अखाड़ों के बीच की कड़ी का काम करता है।
जब कभी कुंभ और अर्धकुंभ जैसे महापर्व होते हैं तो ये नागा साधु कोतवाल की सूचना पर वहां रहस्यमय तरीके से पहुंच जाते हैं।
अखाड़ों के ज्यादातर नागा साधु हिमालय, काशी, गुजरात और उत्तराखंड में रहते हैं। अगर आप पहाड़ी राज्यों में भ्रमण पर जाएं तो आपको कई आश्रम या रास्ते भी दिखाई देंगे। मसलन ऋषिकेश से नीलकंठ जाने पर वहां आपने कई और भी मंदिर या मठ देखे होंगे… बस इन्हीं पहाड़ियों पर नागाओं का भी बसेरा होता है।
ये सभी गांव या शहर से दूर पहाड़ों, गुफाओं और कन्दराओं में साधना करते हैं। नागा संन्यासी एक गुफा में कुछ साल रहने के बाद अपनी जगह बदल देते हैं।